English Translation of Gurudev’s Speech
In this sweltering heat, your eagerness to learn about Kriya Yoga is truly commendable. My Gurudev (Shri Maheshwari Prasad Dubey) often mentioned that during the winter, the practice of Kriya Yoga flows effortlessly, but in the summer, it becomes more challenging.
The techniques of Kriya that you have received, originally shared by Lahiri Baba, can bring transformative results if practiced consistently. Lahiri Baba also emphasized that regular practice of Kriya Yoga strengthens one’s willpower to such an extent that a person can achieve remarkable things independently.
I once discussed with my Gurudev whether these spiritual techniques genuinely lead to significant results for practitioners. I questioned whether outcomes were merely dependent on an individual’s mental state, influenced by the three gunas (qualities of nature), rather than being universally applicable. This led me to wonder if everyone needed to be taught the specific Kriya technique.
In response, Gurudev explained that those seeking initiation into Kriya Yoga are not ordinary individuals. Their interest in yogic practices is not a sudden development but is rooted in a deep yearning for personal growth and liberation across many lifetimes. This enduring desire draws them to these techniques again and again.
Lahiri Baba taught that spiritual evolution and liberation can be achieved through Kriya Yoga, especially through the practice of Pranayama. He believed that through correct practice of Pranayama, one can observe profound changes within.
Pranayama involves rhythmic and controlled breathing, designed to harmonize the divided aspects of our life force, or prana. By birth, prana resides in the Brahmarandhra and is divided into five components: prana, apana, vyana, samana, and udana. Consistent practice of Pranayama unifies these components. The ultimate goal is to return to the Brahmarandhra, where the prana becomes stable.
Prana exists in two states: restless and stable. Restless prana gives rise to desires and thoughts, while stable prana enhances willpower and awareness. The purpose of Pranayama is to transition prana into a stable state, allowing practitioners to distinguish between the two, leading to greater self-awareness.
Lahiri Baba encouraged all Kriya practitioners to strive for this stable state. Once achieved, obstacles on the spiritual path become fewer. However, reaching this state requires dedication, faith, and devotion.
We are born with a mix of positive and negative qualities. Many are often drawn to negativity, doubting the power of positive traits. But when we embrace positivity, it leads to transformative changes.
One day, someone told me, “Kriya practice lacks devotion. I find greater joy in sitting before an idol, performing rituals and puja. That brings me immense happiness.”
This happiness is understandable, as it is influenced by the power of Maya—the illusionary nature of the world. Maya operates because we often approach devotion with personal gain in mind. However, as a practitioner progresses and establishes themselves in Kutastha, they begin to witness their own inner light. This evolves into the perception of a triangular form representing the three gunas (modes of nature). With steady focus, they may even glimpse Para Prakriti—the ultimate divine power.
Reaching the state of Kutastha enhances willpower, but the outcome depends on the practitioner’s efforts. Many express a desire for the Guru’s grace. In this context, ‘Grace’ means being firmly established in Kutastha. Under the Guru’s grace, various powers naturally emerge within the practitioner. The term ‘Guru’ refers to the Para Prana—the primal life force behind all life, as the Upanishads affirm: “Sa U Pranasya Prana,” meaning the one who embodies the essence of life itself. Gradually, this essence begins to reveal itself.
Some practitioners, through their connection to Kutastha, become so immersed in devotion that surrender occurs effortlessly.
The insights I have shared today encapsulate the core of Kriya Yoga. Each individual must reflect on their own spiritual state and seek guidance from the Guru, asking, “Please enlighten me about my situation, the obstacles I face, and the path to further progress.” Those who carry these questions within themselves will naturally find the answers and receive grace.
I will conclude now, as the heat is causing discomfort for many gathered here. If you have questions related to Kriya, feel free to meet me or call, and I will tailor my response to your situation. Remember, your journey is unique to you.
HIndi Translation of Gurudev’s Speech
मैं देख रहा हूँ कि किस प्रकार आप लोग इस भीषण गर्मी में भी क्रिया योग के बारे में कुछ सुनने के लिए बैठे हुए है । मेरे गुरुदेव (श्री माहेश्वरी प्रसाद दुबे) अक्सर एक अच्छी बात कहा करते थे कि “शीतकाल में क्रिया का अभ्यास अच्छा होता है, गर्मी में क्रिया का अभ्यास करना अधिक कठिन होता है”।
आपको जो ये क्रिया पद्धति मिली है, जिसको लहिड़ी बाबा ने जनमानस के साथ साझा किया है, यदि इसका नियमित रूप से अभ्यास किया जाए, तो इसके द्वारा उचित परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। लहिड़ी बाबा ने यह भी कहा कि जब कोई व्यक्ति नियमित रूप से क्रिया या इसी तरह की पद्धतियों का अभ्यास करता है, तो उनकी इच्छाशक्ति इतनी मजबूत हो जाती है कि वे इसके द्वारा आश्चर्यजनक काम कर सकते हैं।
कभी-कभी, मैं अपने गुरुदेव के साथ क्रिया योग को लेकर चर्चा किया करता था ” कि क्या वास्तव में क्रिया योग आदि पद्धतियों के अभ्यास से किसी का कल्याण हो सकता है ?”। मेरा मानना था कि किसी व्यक्ति को साधना का परिणाम केवल उसके मानसिक स्थिति के कारण ही मिलता हैं, जिसमें उनके तीन गुणों का विशेष प्रभाव रहता है, जिससे यह साधनागत अनुभव उसके स्वयं के होते है जो सर्वसामान्य के लिए एक समान नहीं हो सकता । जिस कारण मैं उनसे पूछा करता था कि सब को क्रिया योग दीक्षा देने की आवश्यकता ही क्या है ।
इसके उत्तर में गुरुदेव ने कहा था कि जो लोग तुम्हारे पास दीक्षा के लिए आते है वो साधारण लोग नहीं है, उनकी योग साधना में रुचि अचानक नहीं आई है; बल्कि यह उनकी आत्मविकास के पथ पर अग्रसर होने और मुक्ति की गहरी इच्छा के कारण है, जो कई जन्मों की उनके खोज को परिणाम है जो उनको बार बार इस पथ पे खींच लाती है।
लहिड़ी बाबा ने कहा है कि क्रिया के माध्यम से आध्यात्मिक विकास या मुक्ति संभव है, जिसमे उन्होंने प्राणायाम तकनीकों को महत्व दिया है। उन्होंने कहा है कि प्राणायाम को सही तरीके से अभ्यास करके, व्यक्ति, स्वयं में होते हुए परिवर्तनो को देख सकता है।
प्राणायाम का अर्थ साँस-प्रश्वास को गहरा करना है । इसका उद्देश्य हमारे जीवन शक्ति या “प्राण” को स्थिर करना है। जन्म से ही हमारा प्राण ब्रह्मरंध्र में स्थित होता है, जो पांच भागों में विभाजित रहता है: प्राण, आपान, व्यान, समान और उदान। नियमित प्राणायाम के अभ्यास से इन विभाजित पञ्च प्राणो को ब्रह्मरंध्र में एकत्रित किया जाता है दूसरे शब्दों में प्राणायाम का अंतिम लक्ष्य ब्रह्मरंध्र में प्राण को स्थिर करना है ।
प्राण की दो अवस्था है : स्थिर और चंचल । चंचल प्राण के कारण इच्छाएँ और विचार उत्पन्न होते है, जबकि स्थिर प्राण इच्छाशक्ति और चेतना के प्रति सजग कराता है । नियमित प्राणायाम का उद्देश्य चंचल और स्थिर प्राण के बीच की भिन्नता को पहचानना है, जिससे हम बेहतर आत्म-जागरूकता हो सके।
लहिड़ी बाबा, सभी क्रियावानो से इस स्थिति की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहने के लिए कहा कहते थे । एक बार यह स्थिति प्राप्त होने पर, बाधाएँ स्वतः कम हो जाती हैं। हालांकि, इस स्थिति की प्राप्ति, व्यक्ति की समर्पणशीलता, श्रद्धा और भक्ति पर निर्भर होती है।
हम सकारात्मक और नकारात्मक गुणों के साथ जन्म लेते हैं। मानव होने के नाते, हम अक्सर नकारात्मक पहलुओं की ओर ज्यादा आकर्षित होते हैं, शायद इसलिए कि हम सकारात्मक गुणों के प्रभाव की प्रभावशालीता पर संदेह करते हैं। हालांकि, अगर हम सकारात्मक गुणों को अपनाने में सफल हो जाते हैं, तो जीवन में सकारात्मक परिवर्तनों की एक प्रक्रिया प्रारंभ हो सकती है।
एक दिन, किसी ने मेरे पास आकर कहा, “क्रियायोग में भक्ति का कोई स्थान नहीं है। मुझे तो मूर्ति के सामने बैठकर उसकी विधि पूर्वक पूजा करके ही अधिक आनंद प्राप्त होता है।”
पूजा में आनंद का अनुभव होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह भी माया शक्ति के अंतर्गत है। माया शक्ति का प्रभाव इसलिए रहता है क्योंकि हम प्रभु से कुछ चाहने-पाने की अभिलाषा रखते है । हालांकि, जब कोई व्यक्ति निर्विकार होकर साधना मार्ग पर आगे बढ़ता है तो वह कूटस्थ में स्थिति प्राप्त करता है, थोड़ी स्थिति पक्की होने पर उसको स्वयं के सूक्ष्म शरीर के दर्शन होते है । धीरे-धीरे उसे एक त्रिकोणाकार आकृति दिखाई देती है, यही उसके तीनो गुणों की स्थिति है । अच्छी तरह से ध्यान केंद्रित करने पर साधक को आगे परा प्रकृति या योगमाया के भी दर्शन होते है ।
मूल रूप में, कूटस्थ में स्थिति पक्की होने पर व्यक्ति की इच्छाशक्ति का विकास होता है, लेकिन यह स्थिति साधक के व्यक्तिगत प्रयासों पर निर्भर करता है। कभी कोई आकर कहता है “गुरुदेव कृपा कीजिये”। यहां , ‘कृपा’ का अर्थ ‘कूटस्थ’ में स्थापित होना है। परिणामस्वरूप, गुरु की कृपा होने पर यह स्थिति आती है और साधक के भीतर स्वतः ही विभिन्न शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। ‘गुरु’ शब्द का अर्थ ‘परम प्राण’—जो सभी के प्राण है , जैसा कि उपनिषदों ने कहा है: “स उ प्राणस्य प्राणः ,” अर्थात जो इस चराचर जगत का प्राण है । इस स्थिति की प्राप्ति के बाद कोई संशय शेष नहीं रहता है ।
कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि किसी साधक की कूटस्थ में स्थिति होने पर वह भक्ति भाव में इतना डूब जाता है कि उसका समर्पण स्वयं ही हो जाता है ।
आज मैंने आपके साथ क्रिया योग की मूल बातें साझा किया है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वर्तमान स्थिति का आत्म-मनन करना चाहिए और फिर अपने गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए ऐसे प्रश्न पूछने चाहिए , “कृपया मुझे मेरी स्थिति के बारे में ज्ञान कराये, मेरे साधना में प्रगति क्यों रुक गई है, मैं और किस तरह से आगे बढूं , कृपया मुझे उचित मार्ग दिखाकर प्रेरित करें।” जो साधक इन प्रश्नो के साथ आगे बढ़ते हैं, उन्हें इनके उत्तर स्वतः प्राप्त हो जाते है और गुरु कृपा को प्राप्त करते है ।
बढ़ता हुआ तापमान सबके लिए कष्टकारक है इसीलिए मैं अपनी वाणी को अब विराम देता हूँ । यदि आपके पास क्रिया से संबंधित प्रश्न हैं, तो मुझसे आकर मिले या टेलीफोन के माध्यम से संपर्क करे , क्योंकि मेरे उत्तर आपके लिए आपकी परिस्थितियों के अनुसार होंगी, जो सर्वसामान्य के लिए नहीं है।
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